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Wednesday, December 11, 2013

फ़िरदौस ख़ान ने किया वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद...


सरफ़राज़ ख़ान
लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जानी जाने वाली स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक फ़िरदौस एवं युवा पत्रकार फ़िरदौस ख़ान ने वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद किया है. वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. इसकी रचना बंकिमचंद्र चटर्जी ने की थी. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और वरिष्ठ साहित्यकार मदनलाल वर्मा क्रांत ने वंदे हिन्दी में अनुवाद किया था. भाजपा नेता आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया था. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है.

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ
ਤੂ ਭਰੀ ਹੈ ਮਿੱਠੇ ਪਾਣੀ ਨਾਲ
ਫਲ ਫੁੱਲਾਂ ਦੀ ਮਹਿਕ ਸੁਹਾਣੀ ਨਾਲ
ਦੱਖਣ ਦੀਆਂ ਸਰਦ ਹਵਾਵਾਂ ਨਾਲ
ਫ਼ਸਲਾਂ ਦੀਆਂ ਸੋਹਣੀਆਂ ਫ਼ਿਜ਼ਾਵਾਂ ਨਾਲ
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…

ਤੇਰੀਆਂ ਰਾਤਾਂ ਚਾਨਣ ਭਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰੀ ਰੌਣਕ ਪੈਲੀਆਂ ਹਰੀਆਂ ਨੇ
ਤੇਰਾ ਪਿਆਰ ਭਿੱਜਿਆ ਹਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਬੋਲੀ ਜਿਵੇਂ ਪਤਾਸ਼ਾ ਹੈ
ਤੇਰੀ ਗੋਦ 'ਚ ਮੇਰਾ ਦਿਲਾਸਾ ਹੈ
ਤੇਰੇ ਪੈਰੀਂ ਸੁਰਗ ਦਾ ਵਾਸਾ ਹੈ
ਮਾਂ ਤੈਨੂੰ ਸਲਾਮ…
-ਫ਼ਿਰਦੌਸ ਖ਼ਾਨ  

मातरम का पंजाबी अनुवाद (देवनागरी में)
मां तैनूं सलाम
तू भरी है मिठ्ठे पाणी नाल
फल फुल्लां दी महिक सुहाणी नाल
दक्खण दीआं सरद हवावां नाल
फ़सलां दीआं सोहणिआं फ़िज़ावां नाल
मां तैनूं सलाम…

तेरीआं रातां चानण भरीआं ने
तेरी रौणक पैलीआं हरीआं ने
तेरा पिआर भिजिआ हासा है
तेरी बोली जिवें पताशा है
तेरी गोद ’च मेरा दिलासा है
तरी पैरीं सुरग दा वासा है
मां तैनूं सलाम…
-फ़िरदौस ख़ान

वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद (रोमन में)
Ma tainu salam
Tu bhri hain mithe pani naal
Phal phulaan di mahik suhaani naal
Dakhan dian sard hawawaan naal
Faslan dian sonia fizawan naal
Ma tainu salam...

Tarian raatan chanan bharian ne
Teri raunak faslan harian ne
Tera pyaar bhijia hasa hai
Teri boli jiven patasha hai
Teri god 'ch mera dilaasa hai
Tere pairin surg da vasa hai
Ma tainu salam...
-Firdaus Khan

फ़िरदौस ख़ान पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. वह कई भाषाओं की जानकार हैं. उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. वह देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लिखती रही हैं. प्रभात प्रकाशन समूह से उनकी 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नाम से एक किताब भी प्रकाशित हो चुकी है.  इसके अलावा वह डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन भी करती हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वह शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली. उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में उनकी ख़ास दिलचस्पी है. वह मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं. फ़िलहाल वह स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं. 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' नाम से उनके दो न्यूज़ पॊर्टल भी हैं.


Tuesday, December 10, 2013

ये लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है


एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्‍चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्‍हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्‍पेस. आज के प्रतिद्व‍न्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्‍चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्‍चे ही पहुंच पाते हैं.

राजा-रानी का दौर ख़्त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़ कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्‍मृतियां अब भी लोगों के ज़ेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्‍चों की तारीफ़ करते हुए उन्‍हें अक्‍सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्‍हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्‍तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्‍लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्‍हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख़्सियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्‍लॉग की दुनिया की चर्चित हस्‍ती है, लेकिन अपने को शब्‍दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है. उस चर्चित ब्‍लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.

फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्‍य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्‍ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्‍लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com/) के लिए जानी जाती हैं.

‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्‍लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्‍य और विशेषकर उर्दू साहित्‍य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्‍दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्‍वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अक्‍सर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहुंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.


एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्‍लावाद की सख्‍़त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्‍य धारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े फ़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्‍लाम और मुस्लिम समाज ही है.

'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्‍थाओं द्वारा पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्‍लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com/) से मिलती है, जिसपर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक महत्‍व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्‍त वे अपने उर्दू ब्‍लॉग ‘जहांनुमा, पंजाबी ब्‍लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्‍लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्‍दी ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.

अपनी ज़बरदस्‍त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नज़र में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गंभीर ब्‍लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्‍लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.

(जनसंदेश टाइम्‍स, 14 दिसम्‍बर, 2011 के 'ब्‍लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित Dr. Zakir Ali Rajnish का लेख)ये लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है

ये लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है


एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्‍चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्‍हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्‍पेस. आज के प्रतिद्व‍न्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्‍चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्‍चे ही पहुंच पाते हैं.

राजा-रानी का दौर ख़्त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़ कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्‍मृतियां अब भी लोगों के ज़ेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्‍चों की तारीफ़ करते हुए उन्‍हें अक्‍सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्‍हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्‍तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्‍लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्‍हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख़्सियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्‍लॉग की दुनिया की चर्चित हस्‍ती है, लेकिन अपने को शब्‍दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है. उस चर्चित ब्‍लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.

फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्‍य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्‍ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्‍लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com/) के लिए जानी जाती हैं.

‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्‍लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्‍य और विशेषकर उर्दू साहित्‍य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्‍दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्‍वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अक्‍सर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहुंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.


एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्‍लावाद की सख्‍़त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्‍य धारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े फ़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्‍लाम और मुस्लिम समाज ही है.

'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्‍थाओं द्वारा पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्‍लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com/) से मिलती है, जिसपर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक महत्‍व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्‍त वे अपने उर्दू ब्‍लॉग ‘जहांनुमा, पंजाबी ब्‍लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्‍लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्‍दी ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.

अपनी ज़बरदस्‍त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नज़र में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गंभीर ब्‍लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्‍लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.

(जनसंदेश टाइम्‍स, 14 दिसम्‍बर, 2011 के 'ब्‍लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित Dr. Zakir Ali Rajnish का लेख)ये लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है

ये लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है


एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्‍चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्‍हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्‍पेस. आज के प्रतिद्व‍न्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्‍चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्‍चे ही पहुंच पाते हैं.

राजा-रानी का दौर ख़्त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़ कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्‍मृतियां अब भी लोगों के ज़ेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्‍चों की तारीफ़ करते हुए उन्‍हें अक्‍सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्‍हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्‍तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्‍लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्‍हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख़्सियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्‍लॉग की दुनिया की चर्चित हस्‍ती है, लेकिन अपने को शब्‍दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है. उस चर्चित ब्‍लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.

फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्‍य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्‍ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्‍लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com/) के लिए जानी जाती हैं.

‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्‍लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्‍य और विशेषकर उर्दू साहित्‍य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्‍दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्‍वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अक्‍सर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहुंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.


एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्‍लावाद की सख्‍़त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्‍य धारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े फ़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्‍लाम और मुस्लिम समाज ही है.

'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्‍थाओं द्वारा पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्‍लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com/) से मिलती है, जिसपर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक महत्‍व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्‍त वे अपने उर्दू ब्‍लॉग ‘जहांनुमा, पंजाबी ब्‍लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्‍लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्‍दी ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.

अपनी ज़बरदस्‍त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नज़र में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गंभीर ब्‍लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्‍लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.

(जनसंदेश टाइम्‍स, 14 दिसम्‍बर, 2011 के 'ब्‍लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित Dr. Zakir Ali Rajnish का लेख)ये लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है

ये लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है


एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्‍चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्‍हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्‍पेस. आज के प्रतिद्व‍न्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्‍चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्‍चे ही पहुंच पाते हैं.

राजा-रानी का दौर ख़्त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़ कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्‍मृतियां अब भी लोगों के ज़ेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्‍चों की तारीफ़ करते हुए उन्‍हें अक्‍सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्‍हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्‍तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्‍लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्‍हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख़्सियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्‍लॉग की दुनिया की चर्चित हस्‍ती है, लेकिन अपने को शब्‍दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है. उस चर्चित ब्‍लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.

फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्‍य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्‍ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्‍लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com/) के लिए जानी जाती हैं.

‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्‍लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्‍य और विशेषकर उर्दू साहित्‍य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्‍दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्‍वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अक्‍सर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहुंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.


एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्‍लावाद की सख्‍़त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्‍य धारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े फ़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्‍लाम और मुस्लिम समाज ही है.

'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्‍थाओं द्वारा पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्‍लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com/) से मिलती है, जिसपर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक महत्‍व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्‍त वे अपने उर्दू ब्‍लॉग ‘जहांनुमा, पंजाबी ब्‍लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्‍लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्‍दी ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.

अपनी ज़बरदस्‍त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नज़र में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गंभीर ब्‍लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्‍लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.

(जनसंदेश टाइम्‍स, 14 दिसम्‍बर, 2011 के 'ब्‍लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित Dr. Zakir Ali Rajnish का लेख)ये लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है

ये लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है


एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्‍चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्‍हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्‍पेस. आज के प्रतिद्व‍न्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्‍चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्‍चे ही पहुंच पाते हैं.

राजा-रानी का दौर ख़्त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़ कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्‍मृतियां अब भी लोगों के ज़ेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्‍चों की तारीफ़ करते हुए उन्‍हें अक्‍सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्‍हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्‍तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्‍लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्‍हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख़्सियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्‍लॉग की दुनिया की चर्चित हस्‍ती है, लेकिन अपने को शब्‍दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्‍तुत करती है. उस चर्चित ब्‍लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.

फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्‍य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्‍ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्‍लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com/) के लिए जानी जाती हैं.

‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्‍लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्‍य और विशेषकर उर्दू साहित्‍य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्‍दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्‍वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अक्‍सर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहुंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.


एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्‍लावाद की सख्‍़त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्‍य धारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े फ़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्‍याप्‍त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्‍लाम और मुस्लिम समाज ही है.

'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्‍थाओं द्वारा पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्‍लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com/) से मिलती है, जिसपर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक महत्‍व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्‍त वे अपने उर्दू ब्‍लॉग ‘जहांनुमा, पंजाबी ब्‍लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्‍लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्‍दी ब्‍लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.

अपनी ज़बरदस्‍त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नज़र में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गंभीर ब्‍लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्‍लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.

(जनसंदेश टाइम्‍स, 14 दिसम्‍बर, 2011 के 'ब्‍लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित Dr. Zakir Ali Rajnish का लेख)ये लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्‍लॉग है

Sunday, December 1, 2013

पेंट से रहें सावधान

सरफ़राज़ ख़ान
एक अध्ययन में दिखाया गया है कि 73 फीसदी ग्राहकों के पेंट ब्रांड 12 देशों में टेस्ट किये गए और इसमें देखा गया कि ब्रांड अमेरिकी मानकों के 600 पाट्र्स प्रति मिलियन (पीपीएम) के पेंट थे।
इसके लिए निम्न टिप्स हैं:
  • ईनेमल पेंट्स सबसे ज्यादा चिंता का विषय हैं जिनको 1000 पीपीएम से भी अधिक चिंतनीय देखा गया है।
  • जो पेंटर पेंट उतारता है उसको इसकी वजह से पेट में दर्द हो सकता है।
  • कुछ पेंट में वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स (वीओसीएस) की वजह से अस्थमा या खांसी की समस्या हो सकती है। वीओसीएस ऑर्गेनिक कैमिकल कंपाउंड्स होते हे जो वैपोराइज होकर वातावरण में पहुंच जाते हैं। वीओसीएस में एल्डीहाइड्स, कीटोन्स और हाइड्रोकार्बन शामिल होते हैं और ये या तो ऑर्ग्रेनिक कंपाउंड के तौर पर होते हैं या फिर कई तरह के मिश्रणों से तैयार होते हैं।
  • चूना (लाइमस्टोन) को घरों की सफेदी के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो सुरक्षित होता है बनिस्बत हाई एंड पेंट्स को जो बाजार में उपलब्ध हैं।
  • बहुत ज्यादा इसका साबका पड़ने से उंगलियां कमजोर हो जाती हैं, ब्लड प्रेषर असामान्य हो जाता है, एनीमिया और गंभीर किस्म का ब्रेन या किडनी डैमेज का भी खतरा रहता है।
  • सूखी खांसी की वजह टाल्यूईन डासोसाइनेट (टीडीआई)  एक प्रमुख संवेदनशील तत्व होता है और यह कैमिकल तत्व कार पेंट में इस्तेमाल किया जाता है।
  • अधिकतर टॉक्सिक असर में उल्टाव संभव होता है अगर इनका जल्द पता लगा लिया जाए।
  • अस्थमा रोगियों को चाहिए कि तुरंत पेंट हुए कमरे में प्रवेश करने से परहेज करें। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

चांद को छू लें...



आओ रात में छत पर चढ़कर
मम्मी के जागने से पहले
अपने पंजों पर खड़े होकर
आसमान में चमकते
चांद को छू लें...
टिमटिमाते हुए तारों को
तोड़कर
अपनी जेबों में भर लें
आवाज़ न करे कोई तारा
टूटते वक़्त
इसलिए
उसको पहले समझा देंगे
दिन निकलने से पहले
आसमान में
तुझे फिर से लगा देंगे
ये बात
तारों को बता देंगे...
-सरफ़राज़ ख़ान