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Tuesday, October 20, 2015

राहे-हक़ की राह दिखा रही हैं बहन फ़िरदौस ख़ान


-अख़्तर ख़ान अकेला
जी, हां फ़िलहाल फ़िरदौस ख़ान क़ुरआन करीम का आम फ़हम ज़ुबान में तर्जुमा कर रही हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग क़ुरआन को पढ़ सकें, समझ सकें और उन तक क़ुरआन का पैग़ाम पहुंच सके. मूल तर्जुमा आलिमों का ही है. इसे उनके रूहानियत से लबरेज़ बलॉग राहे-हक़ पर देखा जा सकता है.

फ़िरदौस ख़ान पेशे से पत्रकार,मिज़ाज से शायरा और लेखिका और दर्शन से सूफ़ी हैं. यही सब पहचान है मेरी बहन फ़िरदौस की, जिसे हम पत्रकार कहें, साहित्यकार कहें, लेखिका कहें, कवयित्री कहें, समाज सुधारक कहें या फिर इंसानियत और हक़ की अलम्बरदार कहें, क्या कहें. कुछ समझ नहीं आता. बस बहन फ़िरदौस अपनी अपनी क़लम लेकर  इस्लाम की एक बेहतरीन सोच के साथ देश में चैन-अमन, एकता और अखंडता, मानवता का पैग़ाम देने निकली हैं. पैसा कमाना इनका मक़सद नहीं. समाज सुधारना, हिन्दुस्तान की नई तस्वीर बनाना इनका अपना मक़सद है. ब्लॉगिंग की दुनिया में मेरे आगमन से ही यह मेरे साथ हैं. इनके समाज सुधार के रवैये से कई लोग इनसे नाराज़ हैं. फिर भी मैं गौरान्वित हूं कि बहन फ़िरदौस एक महिला, मुस्लिम महिला होकर सामाजिक सुधार, इंसानियत की अलमबरदारी में, प्रमुख साहित्यकारों के बीच एक अच्छे इंसान के रूप में अव्वल, सबसे अव्वल हैं.

फ़िरदौस ख़ान अपने बारे में ख़ुद लिखती हैं- "मेरे अल्फ़ाज़ मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं, क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं." यह सच भी है. वह लिखती हैं और असमानता, मज़हबी और जातिगत भेदभाव, नफ़रत के ख़िलाफ़. वह एक जीवंत दर्शन देती हैं. फ़िरदौस बहन कहती हैं- "क़ुदरत किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती. सूरज, चांद, सितारे, हवा, पानी, ज़मीन, आसमान, पेड़-पौधे मज़हब के नाम पर किसी के साथ किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं करते. जब कायनात की हर शय सबको बराबर मानती है, तो फिर ये इंसान क्यों इतना नीचे गिर गया कि इसके गिरने की कोई हद ही न रही. इंसान को ख़ुदा ने अशरफ़ुल मख़लूक़ात बनाकर इस दुनिया में भेजा था, लेकिन इसने अपनी ग़र्ज़ के लिए इंसानों को मज़हबों में तक़सीम करके रख दिया. फिर ख़ुद को आला समझना शुरू कर दिया और दूसरों को कमतर मानने लगा. उनसे नफ़रत करने लगा, उनका ख़ून बहाने लगा.ऐसे इंसानों से क्या जानवर कहीं बेहतर नहीं हैं, जो मज़हब के नाम पर किसी से नफ़रत नहीं करते, मज़हब के नाम पर किसी का ख़ून नहीं बहाते."
वह कहती हैं- "लोग अकसर शिजरे की बात करते हैं. हमारा ताल्लुक़ फ़लां ख़ानदान से है, उसका फ़लां से है. हम आला ज़ात के हैं और फ़लां कमतर ज़ात का है. हमारा एक ही जवाब है- हमारा ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है, जो जन्नत में रहा करते थे. हम ही क्या दुनिया के हर इंसान का ताल्लुक़ हज़रत आदम अलैहिस्सलाम है. इसलिए ख़ुद को आला और दूसरे को कमतर समझना अच्छी बात नहीं है."

फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जाना जाता है. वह पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. वह कई भाषाओं की जानकार हैं. उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया है. वह देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लिखती रही हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. वह कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वह शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली. उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में उनकी ख़ास दिलचस्पी है. वह मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं और मासिक वंचित जनता में संपादकीय सलाहकार हैं. वह स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं. 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' नाम से उनके दो न्यूज़ पॉर्टल भी हैं.
वह रूहानियत में यक़ीन रखती हैं और सूफ़ी सिलसिले से जुड़ी हैं. उन्होंने सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन पर आधारित एक किताब 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' लिखी है, जिसे साल 2009 में प्रभात प्रकाशन समूह ने प्रकाशित किया था. वह अपने पिता स्वर्गीय सत्तार अहमद ख़ान और माता श्रीमती ख़ुशनूदी ख़ान को अपना आदर्श मानती हैं. हाल में उन्होंने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद किया है. क़ाबिले-ग़ौर है कि सबसे पहले फ़िरदौस ख़ान ने ही कांग्रेस के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी को ’शहज़ादा’ कहकर संबोधित किया था, तभी से राहुल गांधी के लिए ’शहज़ादा’ शब्द का इस्तेमाल हो रहा है.

वह बलॉग भी लिखती हैं. उनके कई बलॉग हैं. फ़िरदौस डायरी और मेरी डायरी उनके हिंदी के बलॉग है. हीर पंजाबी का बलॉग है. जहांनुमा उर्दू का बलॉग है और द पैराडाइज़ अंग्रेज़ी का बलॉग है.  राहे-हक़ उनका रूहानी तहरीरों का बलॉग है.  राहे-हक़ रूहानियत पर आधारित है. वह कहती हैं- " इस बलॊग का मक़सद रूहानी सफ़र पर ले जाना है. एक ऐसा सफ़र, जिसकी मंज़िल सिर्फ़ और सिर्फ़ दीदारे-इलाही है. ’राहे-हक़’ कुल कायनात के लिए है. इस बलॊग में सबसे पहले अल्लाह की पाक किताब क़ुरआन को शामिल किया गया है. क़ुरआन का  इंग्लिश तर्जुमा दिया गया है. हमारी कोशिश है कि हम अलग-अलग भाषाओं में क़ुरआन के तर्जुमे को इसमें शामिल करें. हमने क़ुरआन करीम को आम ज़ुबान में पेश करने की कोशिश की है. कुछ सूर: के आसान तर्जुमे को ’राहे-हक़’ पर पढ़ा जा सकता है. हमारी कोशिश है कि अल्लाह के प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम, अल्लाह के नबियों और वलियों की ज़िन्दगी के वाक़ियात भी पेश करें. इबादत से वाबस्ता इल्म, मसलन नूरानी रातें, दुआओं की फ़ज़ीलत और सुनहरे अक़वाल भी इसमें शामिल करें. फ़िलहाल यह एक शुरुआत है और सफ़र बहुत लंबा है. "
वाक़ई, राहे-हक़ अपनी तरफ़ खींचता है.
बहन फ़िरदौस ज्ञान का समुन्दर हैं, तो समझिए उनका व्यवहार कितना पुरख़ुलूस, पुर कशिश होगा.
वह अनुभव के आधार पर कहती हैं- कुछ लोग यूं ही शहर में हमसे भी ख़फ़ा हैं, हर एक से अपनी भी तबियत नहीं मिलती. यह कड़वा सच उनके दोस्त, उनके दुश्मनों के लिए एक पैग़ाम भी है.

Thursday, April 23, 2015

महर्षि सोनक ने बसाया था सोहना


सरफ़राज़ ख़ान
अरावली की मनोरम पर्वत मालाओं के अंचल में स्थित सोहना अपने गर्म पानी के चष्मों के लिए प्राचीनकाल से ही प्रसिध्द है। दिल्ली से करीब 50 किलोमीटर दिल्ली-अलवर मार्ग पर बसा यह नगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने के कारण तीर्थ यात्रियों पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। दिल्ली, जयपुर, अलवर, पलवल गुड़गांव से आने वाली सड़कों का मुख्य केंद्र होने के कारण यहां सालभर श्रध्दालुओं का जमघट लगा रहता है।
किवदंती है कि सोहना को महर्षि सोनक ने बनाया था। इसलिए उन्हीं के नाम पर स्थल का नाम सोहना पड़ा। कुछ विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकाल में यहां की पहाड़ियों से सोना मिलता था। इस वजह से इस स्थल को सुवर्ण कहा जाता था, जो बाद में सोहना के नाम से जाना जाने लगा। वैसे बरसात के दिनों में पहाड़ी नालों की रेत में अकसर सोने के कण दिखाई देते हैं। इस सोने को लेकर एक और किस्स मशहूर है जिसके मुताबिक वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आखिरी मुगल सम्राट बहादुरशा जफर के परिजनों को दिल्ली छोड़कर जाना पड़ा। अंग्रेज फौज से बचने के लिए उन्होंने सोहना इलाके के गांव में डेरा डाला और अपने खजाने को पहाड़ियों की किसी सुरक्षित गुफा में दबा दिया। बाद में अंग्रेजी सेना ने उनकी हत्या कर दी।
इस घटना के करीब चार दशक बाद वर्ष 1895 में के.एम. पॉप नामक अंग्रेज कर्नल ने उस खजाने की तलाश में लंबे समय तक पहाड़ियों की खाक छानी। मगर जब उसे कोई कामयाबी नहीं मिली तो उसने इलाके के कुछ लोगों को साथ लेकर नए सिरे से खजाने की खोज शुरू की। उन्हें खजाने वाली गुफा भी मिल गई, लेकिन भूत-प्रेत के खौफ से ग्रामीणों ने गुफा में जाने से इंकार कर दिया। इसके बावजूद कर्नल ने हार नहीं मानी और अकेले ही खजाने जक जाने का फैसला किया। गुफा के अंदर जाने पर उन्हें अस्थि पंजर दिखाई दिए, लेकिन इसके बाद भी वह आगे बढ़ते रहे। अंधेरी गुफा की जहरीली गैस से उनका दम घुटने लगा और वह बाहर की ओर दौड़ पड़े। इस गैस का उनकी सेहत पर गहरा असर पड़ा। स्वास्थ्य लाभ होने पर वे दोबारा गुफा में गए, लेकिन तब तक सारा खजाना चोरी हो चुका था। प्राचीनकाल में यहां ठंडे पानी के चश्मे भी थे, जो प्राकृतिक आपदाओं या परिवर्तन की वजह से धरती के नीचे समा गए। इनके बारे में खास बात यह है कि इन चश्मों का संबंध जितना प्राचीन कथा से जुड़ा है, उतना ही इनकी खोज का विषय भी विवादास्पद रहा है। कुछ लोगों के मुताबिक ये चश्मे करीब तीन सौ साल पहले खोजे गए, जबकि बुजुर्गों का कहना है कि इन पर्वत मालाओं के नीचे से होकर गुजरने वाले व्यापारी और तीर्थ यात्रियों ने इन चश्मों की खोज की थी।
अरावली पर्वत की शाखाएं यहां से अजमेर तक फैली है। इन पहाड़ियों में दस-दस मील की दूरी तक कोई कोई कुंड या झरना मौजूद है। इन झरनों चश्मों की आखिरी कड़ी अजमेर में 'पुष्कर' सरोवर के नाम से विख्यात है। इन चश्मों की खोज के बारे में कई दंत कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक बार चतुर्भुज नामक एक बंजारा ऊंटों, भेड़ों और खच्चरों पर नमक डालकर सोहना इलाके से गुजर रहा था। गर्मी का मौसम था। इसलिए प्यास से व्याकुल होने पर उसने अपने कुत्ते को पानी की तलाश के लिए भेजा। थोड़ी देर बाद कुत्ता वापस आया। उसके पैर पानी से भीगे हुए थे। यह देखकर बंजारा बहुत खुश हुआ और कुत्ते के साथ पानी के चश्मे की ओर गया। उसने देखा कि निर्जन स्थला पर शीतल जल चश्मा है उसने सोचा कि दैवीय शक्ति के कारण ही वीरान चट्टानों में पानी का चश्मा है। इसलिए उसने देवी से अपने कारोबार में मुनाफा होने की मन्नत मांगी और उसे बहुत लाभ हुआ इस घटना से वह प्रभवित हुआ लौटते समय लौटते समय उसने अपने गुरू के नाम पर साखिम जाति नाम के गुम्बद और कुंडों का जीर्णोद्वार करवाया साखिम जाति के गुम्बद पर लगा सोने का कलम करीब आठ दशक पुराना है इसे केषवानंद जी ने इलाके के लोगों से एकत्रित घन से चढ़वाया था। 'आईने अकबरी' में भी यहां के गर्म पानी के चश्मों का जिक्र आता है किवदंती है कि योग दर्जन के रचयिता महर्षि पतंजलि का इस स्थल पर अनेक बार आगमन हुआ संत महात्मा ऐसे ही स्थलों के आसपास अपने आश्रम बनाते थे। आधुनिक समय 1872 ई में अंग्रेजों ने इन चश्मों का शहर के मध्य स्थित एक सीधी चट्टान के तल में स्थित है इन चश्मों की तीर्थ के रूप में माना जाता है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)