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Thursday, April 23, 2015

महर्षि सोनक ने बसाया था सोहना


सरफ़राज़ ख़ान
अरावली की मनोरम पर्वत मालाओं के अंचल में स्थित सोहना अपने गर्म पानी के चष्मों के लिए प्राचीनकाल से ही प्रसिध्द है। दिल्ली से करीब 50 किलोमीटर दिल्ली-अलवर मार्ग पर बसा यह नगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने के कारण तीर्थ यात्रियों पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। दिल्ली, जयपुर, अलवर, पलवल गुड़गांव से आने वाली सड़कों का मुख्य केंद्र होने के कारण यहां सालभर श्रध्दालुओं का जमघट लगा रहता है।
किवदंती है कि सोहना को महर्षि सोनक ने बनाया था। इसलिए उन्हीं के नाम पर स्थल का नाम सोहना पड़ा। कुछ विद्वानों का मानना है कि प्राचीनकाल में यहां की पहाड़ियों से सोना मिलता था। इस वजह से इस स्थल को सुवर्ण कहा जाता था, जो बाद में सोहना के नाम से जाना जाने लगा। वैसे बरसात के दिनों में पहाड़ी नालों की रेत में अकसर सोने के कण दिखाई देते हैं। इस सोने को लेकर एक और किस्स मशहूर है जिसके मुताबिक वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आखिरी मुगल सम्राट बहादुरशा जफर के परिजनों को दिल्ली छोड़कर जाना पड़ा। अंग्रेज फौज से बचने के लिए उन्होंने सोहना इलाके के गांव में डेरा डाला और अपने खजाने को पहाड़ियों की किसी सुरक्षित गुफा में दबा दिया। बाद में अंग्रेजी सेना ने उनकी हत्या कर दी।
इस घटना के करीब चार दशक बाद वर्ष 1895 में के.एम. पॉप नामक अंग्रेज कर्नल ने उस खजाने की तलाश में लंबे समय तक पहाड़ियों की खाक छानी। मगर जब उसे कोई कामयाबी नहीं मिली तो उसने इलाके के कुछ लोगों को साथ लेकर नए सिरे से खजाने की खोज शुरू की। उन्हें खजाने वाली गुफा भी मिल गई, लेकिन भूत-प्रेत के खौफ से ग्रामीणों ने गुफा में जाने से इंकार कर दिया। इसके बावजूद कर्नल ने हार नहीं मानी और अकेले ही खजाने जक जाने का फैसला किया। गुफा के अंदर जाने पर उन्हें अस्थि पंजर दिखाई दिए, लेकिन इसके बाद भी वह आगे बढ़ते रहे। अंधेरी गुफा की जहरीली गैस से उनका दम घुटने लगा और वह बाहर की ओर दौड़ पड़े। इस गैस का उनकी सेहत पर गहरा असर पड़ा। स्वास्थ्य लाभ होने पर वे दोबारा गुफा में गए, लेकिन तब तक सारा खजाना चोरी हो चुका था। प्राचीनकाल में यहां ठंडे पानी के चश्मे भी थे, जो प्राकृतिक आपदाओं या परिवर्तन की वजह से धरती के नीचे समा गए। इनके बारे में खास बात यह है कि इन चश्मों का संबंध जितना प्राचीन कथा से जुड़ा है, उतना ही इनकी खोज का विषय भी विवादास्पद रहा है। कुछ लोगों के मुताबिक ये चश्मे करीब तीन सौ साल पहले खोजे गए, जबकि बुजुर्गों का कहना है कि इन पर्वत मालाओं के नीचे से होकर गुजरने वाले व्यापारी और तीर्थ यात्रियों ने इन चश्मों की खोज की थी।
अरावली पर्वत की शाखाएं यहां से अजमेर तक फैली है। इन पहाड़ियों में दस-दस मील की दूरी तक कोई कोई कुंड या झरना मौजूद है। इन झरनों चश्मों की आखिरी कड़ी अजमेर में 'पुष्कर' सरोवर के नाम से विख्यात है। इन चश्मों की खोज के बारे में कई दंत कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक बार चतुर्भुज नामक एक बंजारा ऊंटों, भेड़ों और खच्चरों पर नमक डालकर सोहना इलाके से गुजर रहा था। गर्मी का मौसम था। इसलिए प्यास से व्याकुल होने पर उसने अपने कुत्ते को पानी की तलाश के लिए भेजा। थोड़ी देर बाद कुत्ता वापस आया। उसके पैर पानी से भीगे हुए थे। यह देखकर बंजारा बहुत खुश हुआ और कुत्ते के साथ पानी के चश्मे की ओर गया। उसने देखा कि निर्जन स्थला पर शीतल जल चश्मा है उसने सोचा कि दैवीय शक्ति के कारण ही वीरान चट्टानों में पानी का चश्मा है। इसलिए उसने देवी से अपने कारोबार में मुनाफा होने की मन्नत मांगी और उसे बहुत लाभ हुआ इस घटना से वह प्रभवित हुआ लौटते समय लौटते समय उसने अपने गुरू के नाम पर साखिम जाति नाम के गुम्बद और कुंडों का जीर्णोद्वार करवाया साखिम जाति के गुम्बद पर लगा सोने का कलम करीब आठ दशक पुराना है इसे केषवानंद जी ने इलाके के लोगों से एकत्रित घन से चढ़वाया था। 'आईने अकबरी' में भी यहां के गर्म पानी के चश्मों का जिक्र आता है किवदंती है कि योग दर्जन के रचयिता महर्षि पतंजलि का इस स्थल पर अनेक बार आगमन हुआ संत महात्मा ऐसे ही स्थलों के आसपास अपने आश्रम बनाते थे। आधुनिक समय 1872 ई में अंग्रेजों ने इन चश्मों का शहर के मध्य स्थित एक सीधी चट्टान के तल में स्थित है इन चश्मों की तीर्थ के रूप में माना जाता है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


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